डॉक्टर निरंजनभाई वर्मा
पहले रसोई घर को बिगाड़ा, फिर शुरू हुआ बहार का होटल/रेस्टोरा का बिन आरोग्यपद खाना और बाद में सील सिला शरू हुआ फैक्टरी में बना रेडी पैक खाना।
याद आता है मुझे राज कपूर की एक बहुत पुरानी फिल्म का दृश्य। देहात से राज कपूर मुंबई आता है और लोकल ट्रेन में टिफिन डब्बेवाला को देख कर पूछता है।
देहाती : अरे भाई ये इतने सारे टिफिन कहां ले जा रहे हो ?
डिब्बे वाला : बाबू लोगो का टिफिन उनकी ऑफिस में पहोचाने हम जा रहे है।
देहाती :बाबू लोग घर से खाना खा के दफ्तर क्यों नहीं जाते ?
डिब्बेवाला : क्योकि बाबुलोगो के पास इतना वक्त नहीं रहता।
देहाती : अजीब है तुम्हारा ये मुंबई शहर। जिस रोटी कमाने के लिए आदमी दफ्तर जाता है वो रोटी खाने के लिए भी उसके पास समय नहीं है।
आज हमारा यही हाल है। जिंदगी भर मेहनत और मज़दूरी करके इंसान पैसा कमाता है। फिर उसको उडाता है ब्रांडेड कपडे और फैशनेबल जुते, घड़िया, स्मार्ट फोन। मगर अपने शरीर के लिए अपना खाना खुद पकाने के लिए उसके पास समय नहीं है। और फिर भी अपने को अपने पूर्वजो से ज्यादा होशियार और बुद्धिवान होने के भ्र्म में जी रहे है।
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